हर इंसान के जीवन में जो घटनाएं होती है,वे दरअसल ईश्वर से मिला हुआ संकेत और मार्गदर्शन है। ईश्वर चाहता हे की इंसान के जीवन की अभिव्यक्ति को आकार मिले लेकिन इंसान ईश्वर की इस लीला को पहचान नहीं पाता।गदाधर के साथ भी ऐसा ही हुआ,वे भी ईश्वर की लीला को ,उनके संकेत को पहचान नहीं पाए थे।लेकिन बड़े भाई के गुजरने के बाद उनकी भक्ति,असली भक्ति बनने लगी।पहले तो वे केबल एक पुजारी की नौकरी करते थे।अब उनके अंदर गहराई से यह प्रार्थना उठने लगी कि मां कली तुमने अपने मंदिर में तो मुझे जगह दे दी,अब अपने दिल में भी थोड़ी जगह दे दे। मां काली की भक्ति करके गदाधर ने पहली बार महसूस किया कि उनके हृदय का बोझ ,उनका दुःख कम हो रहा है।इससे उनकी भक्ति और बढ़ने लगी क्योंकि जब भक्ति के परिणाम दिखाई देने लगते हे तो इंसान यही चाहता है कि ये भक्तिं चरम सीमा तक पहुंचे।
मां काली की पूजा करने का उनका अपना अलग तरीका था।वे मां कली की मूर्ति के सामने घंटो बैठे रहते थे ।मूर्ति के सामने बैठने से पहले वे अपने सिर पर फूल रखते ताकि यह याद रहें कि उन्हें जरा भी हिलना डुलना नहीं है।क्योंकि अगर हिले तो फूल गिर जाएगा।मंदिर में आनेवाले लोग जब गदाधर को अपने सिर पर फूल रखकर बैठे हुए देखते तो सोचते कि ये पुजारी क्या ऊटपटांग हरकतें कर रहा है।इसे माता के सिर पर फूल चढ़ा ना चाहिए और यह अपने ऊपर फूल चढ़ाकर बैठा है।
दरअसल लोगों को कोई अंदाजा नहीं था कि उस समय भी गदाधर भक्ति में बैठकर माता की प्रार्थना कर रहे होते थे।उन्हें लगता था कि माता उनके साथ लुकाछिपी का खेल खेल रही है।माता उन्हें बुलाती है और जब वे उठना चाहते है तो घुटनों में दर्द शुरू हो जाता है इसलिए वे उठ नहीं पाते।वे यह समझते थे कि यह जरूर माता की ही कोई चाल है,जो वह मुझे पास बुलाती भी हे और बिठाकर भी रखती हे। वे माता की भक्ति में इतना लीन हो गए थे कि माता का दर्शन होते ही खुश हो जाते और अगर कभी दर्शन न हो तो दुःख से भर जाते थे।
काली मां की कृपा से गदाधर को अपने जीवन में ऐसे लोग मिले ,जो उनके भक्ति को समझते थे ।वरना उनकी हरकतें और पूजा करने के तरीके को देखकर उन्हें मंदिर से बाहर निकाल दिया गया होता। गदाधर का भांजा हृदय राम सदैव उनके साथ रहता था।वह उन्हें समझता था इसलिए वह उन्हें उनकी तरीके से भक्ति करने देता और उनका सहयोग भी करता । माथुर नाथ ने जब गदाधर को मंदिर में अलग तरह से पूजा करते हुए देखा तो वे समझ गए कि ये कोई पागलपन नहीं हे बल्कि एक ऐसी अवस्था हे, जिसे समझना सभी के बस की बात नहीं है।कहते हैं कि भक्ति कि बातें बताने से भक्ति बढ़ती है। माथुर नाथ ने गदाधर की भक्ति देखकर रानी रासामणि से कहा कि हम आपके लिए एक खुशखबरी लाए है।जब रासमणि ने पूछा कि कैसी खुशखबरी तो माथुर दास ने जवाब दिया कि बहुत जल्द मंदिर में माता की मूर्ति जाग्रत होनेवाली है।
माथुर नाथ को यह रहस्य पता था कि किसी भी मंदिर में एक विशेष किस्म का पुजारी होने पर ही मंदिर की मूर्ति की जागृति संभव हो पाती है।पुजारी जितने उच्च चेतना का होगा ,मंदिर की मूर्ति भी उतनी ही जाग्रत होगी।अगर मंदिर में भक्ति का भक्त पूजा कर रहा है तो मूर्ति के जाग्रत होने की संभावना कई गुना बढ़ जाती है।जबकि आजकल लोग जब मंदिर में पूजा करते हैं तो उनका ध्यान भक्ति पर कम और आने जानेवाले लोगों के कपड़ों पर या उनके द्वारा अर्पित किए हुए चढ़ावे पर ज्यादा होता है।अगर किसी मंदिर या सत्संग में लोगों का ध्यान ऐसी तुच्छ चीजों पर अटक रहा है और पुजारी भी वैसा ही है तो उस मंदिर में असली चीज प्राप्त करना असम्भव है।
लोग अपनी सांसारिक दुनिया से , माया से कुछ समय निकालकर मंदिर में आते है। लेकिन मंदिर में जाना कुछ लोगों के लिए बगीचे में जाने जैसा होता है,वे मंदिर में भी सांसारिक दुनिया की ही बातें करते है ।लेकिन पुजारी तो अपने दिन का काफी समय मंदिर में ही बिताता है। यदि उसका ध्यान भी मंदिर में आने जानेवालों के कपड़ों और रंग रूप पर रहेगा तो उस मंदिर की मूर्ति कभी जाग्रत नहीं होगी ।क्योंकि मूर्ति सिर्फ एक ही चीज से जाग्रत होती है और वह है, भक्ति ।गदाधर की भक्ति मूर्ति को जाग्रत करने वाली भक्ति थी।
वे उस मंदिर के लिए सबसे योग्य पुजारी थे ।हालांकि कई लोगों को लगता था कि वे सही पुजारी नहीं है। लेकिन मंदिर से संबधित मसलों पर निर्णय लेनेवाली रानी रासामणि थी और वे जानती थी कि उनकी भक्ति सच्ची है।उनके पास कई लोग गदाधर के पूजा करने के तरीके को लेकर शिकायत करने आते थे लेकिन इसके बावजूद उन्होंने गदाधर को एक मौका दिया।वे जानती थी कि इसका प्रभाव बड़े स्तर पर पड़ेगा।
उस मंदिर को बनवाने के पीछे उनका उद्देश्य यही था कि वहां हर धर्म के लोग आएं ।इसलिए मंदिर के परिसर में लोगों को रहने और खाने पीने की सारी व्यवस्था भी की गई थी ।जिसके कारण धीरे धीरे वहां अलग अलग धर्मों के लोग आना शुरू हो गए।यह सब इसीलिए किया गया ताकि मंदिर की तरंगे उच्च स्तर की होती जाएं और वह तीर्थस्थान जितना पवित्र बन जाए।
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