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गदाधर की मासूम भक्ति












 हर इंसान अपने जीवन में प्रियजनों की मृत्यु का दुःख भोगता हे ! प्रियजन के मृत्यु की घटना कुछ लोगों के लिए आखें खोलने का काम करती है । हालांकि पहले पहले तो हर कोई दुःखी और परेशान ही होता है लेकिन कुछ लोग ऐसे होते है, जो ऐसी घटना के बाद  कुछ नया सोचना शुरू करते हे और आखिरकार अपने जीवन में  सकारात्मक परिवर्तन ले आते है ।

जब गदाधर की उम्र सिर्फ 7साल की थी, तभी उनके पिता की मृत्यु हो गई । इस घटना ने उनकी आंखे खोलने का काम किया, जिस कारण बे कुछ नया सोचने में सख्यम हो सके। सबसे पहले समाधि का अनुभव मिलने से उनका हृदय खुला था और अब पिता कि मृत्यु के बाद उनके अंदर नए नए विचार उठने लगे । हालांकि तब भी गदाधर माता पिता द्वारा मिले संस्कारों के अनुसार ही जी रहे थे ।


पिता की मृत्यु के बाद उनके  व्यवहार पर सबसे अधिक प्रभाव उनकी मा का पड़ा ।उनके  हृदय में अपनी मा के लिए बिल्ख्यन प्रेम था और  बे नहीं चाहते थे कि मा को किसी भी  बजह से कोई दुःख पहुंचे । इसलिए उन्होंने अपना दुःख  मां के सामने जाहिर नहीं किया। गदाधर ने महसूस किया कि जब में मां के साथ रहता हूं तो मां को पिताजी की याद कम आती हे, बे दुःखी नहीं होती,खुश रहती है ।लेकिन जब भी में मां से दूर जाता हूं तो बे दुःखी हो जाती है ।यह एहसास होने के बाद गदाधर अपना ज्यादातर समय मां के साथ ही बिताने लगे ।

बचपन में गदाधर पढ़ाई में अच्छे थे ।उन्हें कबिता,पाठ,कहानी और भाषा ज्ञान जैसे कला विषय बहुत पसंद थे ।केबल गणित में उन्हें तकलीफ होती थी,इस बजह से बे पाठशाला जाना नहीं चाहते थे ।क्योंकि बे जानते थे कि अगर पाठशाला जाएंगे तो सारे विषय सीखने पड़ेंगे, चाहे बे उन्हें पसंद हो या ना हों । अपनी मां के साथ ज्यादा से ज्यादा समय रहने के कारण बे पूजा पाठ में भी बैठने लगे थे ।इससे उनके जीवन में एक नया मोड़ आया । मां की मूर्ति बनाना और पूजा करना ,उन्हें बहुत पसंद आता था । जब उनके बड़े भाई उन्हें पढ़ाई पर ध्यान देने के लिए कहते तो गदाधर का जवाब होता, मुझे दाल रोटीबली पढ़ाई नहीं करनी है ,मुझे ज्ञान और भक्तिबाली पढ़ाई करनी है ।इतनी छोटी सी उम्र में समझ न होने के बाबजूद भी उनके मुंह से बैसे ही शब्द निकल रहे थे ,जैसा जीवन बे जीना चाहते थे ।


गदाधर को एक अच्छा परिवार और अच्छा बाताबरण मिला था ।मां के संस्कारों की बजह से बे अपने जीवन में अच्छी बातों को ही आकर्षित कर रहे थे ।पूजा पाठ के अलावा उनकी मां उन्हें अपने साथ सत्संग में भी लेकर जाया करती थी । बहां उन्हें एक सन्यासी कि महिमा सुनने का अवसर मिला ।एक बार सत्संग में बताया गया कि संन्यासी उसे कहा जाता है, जो   माया के अनित्य अनुभव को त्यागता है और नित्य अनुभव पाने के लिए कार्यरत रहता है ।यह सुनते ही गदाधर के हृदय से भी यह प्रार्थना उठने लगीं की  मुझे भी ऐसा ही जीवन चाहिए ,मुझे भी नित्य (स्ताई) अनुभव चाहिए ।


नित्य अनुभव यानी जो सदा चलता हे, निरंतर अनुभूत होता है ।इस नित्य अनुभव की इच्छा ही भविष्य में गदाधर को भक्ति की ऊंचाई पर लेकर गई। इस अनुभव को पाने के लिए उन्होंने हर तरह के मार्ग अपनाकर देखे ।चूंकि बे अपने जीवन में परम संतुष्टि पाना चाहते थे इसलिए सत्संग में बे संन्यासी और संन्यास जीवन की महिमा बड़े ध्यान से सुनते थे ।


संन्यासी जीवन दर्शन

गदाधर के गांव में अकसर साधु  सन्यासी आते जाते रहते थे ।चूंकि बे मोक्ष मार्ग की महिमा जान चुके थे इसलिए अब बे सारे संन्यासियों का निरीक्षण करने लगे थे,इसके लिए बे उनकी सेबा भी करते थे ।हालांकि उन्होंने पहले भी कई संन्यासियों को देखा था लेकिन अब उनका नजरिया बदल गया था ।अब बे संन्यासियों को देखकर सोचते थे कि  इनके भीतर ऐसा क्या है ,जो मुझे अपने भीतर लाना हे ? सन्यासियों के साथ रहकर उन्होंने समझा की 'ये लोग कैसे उठते बैठते है। कैसे खाते पीते है, कैसे बाते करते हे...बगैरह् ।चूंकि संन्यासियों को भी गदाधर की उपस्थिति से कोई तकलीफ नहीं होती थी इसलिए बे उसे अपने साथ रहने देते थे ।कभी कभी तो बे सन्यासी नन्हें गदाधर की कमर में अपना लंगोट बांधकर उन्हें किसी सन्यासी की तरह ही सजा -संबार देते थे।गदाधर इससे बहुत खुश होते।एक बार यूं ही किसी सन्यासी का लंगोट बांधकर गदाधर अपनी मां के पास गए और चहकते हुए बोले ,देखो मां ,संन्यासियों ने मुझे कैसे सजाया है ।गदाधर को इस बेश में देखकर उनकी मां खुश होने के बजाय घबरा गई। दरअसल उनके मन में यह डर बैठ गया कि कहीं उनका बेटा भी बड़ा होकर सन्यासी न बन जाए।चूंकि गदाधर उस समय काफी छोटे थे इसलिए उन्हें मां कि यह चिंता समझ में नहीं आई।

शिबलिला में समाधि

एक बार उनके गांव में शीबलिला खेली जा रही थी,ठीक वैसे ही जैसे रामलीला होती है।मंच पर जिस कलाकार को शिव की भूमिका करनी थी, बह अचानक बीमार पड़ गया।यह देखकर गदाधर के दोस्तों ने कहा कि आज शिव कि भूमिका तुम कर लो।लेकिन उन्होंने फोरन मना कर दिया और कहा कि 'यह सब मुझसे नहीं होगा। लेकिन फिर दोस्तों ने जोर दिया और कहा की 'तुम्हे इसके लिए ज्यादा कुछ करने की जरूरत नहीं पड़ेगी,बस थोड़ी से संवाद बोलने हे और शिवाजी की मुद्रा में आंखें बंद करके मंच पर बैठे रहना है ।मगर उन दोस्तों को नहीं पता था कि आंख बंद करके बैठने से गदाधर के साथ क्या होने वाला है । 


आखिरकार समझा बुझाकर गदाधर को शिव की वेशभूषा पहनाकर मंच पर बिठा दिया गया।नाटक शुरू हुआ। एक अभिनेता आकर शिव की आराधना करने लगा।जैसे ही उस किरदार ने आराधना के शब्दों का उच्चारण शुरू किया ,वैसे ही गदाधर समाधि में चले गए,जबकि अगले ही पल उन्हें अपना संवाद बोलना था।लेकिन अब तो बे समाधि में थे तो संवाद कैसे बोलते,उनके अंदर तो बार बार 'कोहम -शिबोहम ' यानी कोन हूं मैं -शिव हूं में का जाप चल रहा था।उस समय बे समाधि में ऐसे लिन हो गए कि शिब का अनुभव करने लगे।

भाव समाधि का अनुभव

एक दिन माता की चौकी पर भजन कीर्तन चल रहा था।गदाधर भी अपनी मां के साथ  बहा गए हुए थे। वहां बे भजन सुनते सुनते पूरी तरह उसी में खो गए यानी भाव समाधि में चले गए ।इसके पहले आसमान में काले बादलों और सफेद पखियों को देखकर उन्हें पहला अनुभव आश्चर्य समाधि का हुआ था। अब बे भाव समाधि में चले गए थे।यहां बे कुछ ऐसे खो गए की लोग बड़ी मुश्किल से उन्हें जगाकर घर ले गए।बाद में जब उनसे इसके बारे में पूछा गया तो बे कुछ भी बता नहीं पाए।

नन्हा गदाधर उस समय समाधि के अनुभव को समझ नहीं पाए क्योंकि यह अनुभव उन्हें अचानक ही मिला था ।दरअसल इंसान ऐसे अनुभव को शब्द तभी दे पाता है,जब उसे यह अनुभव समझ प्राप्त होने के बाद मिला हो।समझ मिलने के बाद ही इंसान ऐसे अनुभव का बर्णन भजन बगैरह के जरिए कर पाता है।हालांकि समाधि का अनुभव ऐसा उच्चतम अनुभव हे की  उसे शब्दों के दायरे में बिठाना मुमकिन नहीं है।मगर भजन के जरिए इस अनुभव की और इशारा किया जा सकता है।ऐसे भजनों से भक्ति भी बढ़ती है।

गदाधर बहुत छोटी उम्र में ही ऐसे अनुभवों से गुजर रहे थे।जब भी गदाधर रामायण या महाभारत पढ़ते या भजन बगैर ह गाते तो आस  पड़ोस की औरतें आकर उनके सामने बैठ जाती।क्योंकि उन्हें गदाधर के मुंह से भजन सुनना अच्छा लगता था।गदाधर को भी सभी को अपने मनपसंद भजन सुनाना बहुत पसंद था और उनके लिए यह बहुत सहज भी था क्योंकि उनकी भक्ति मासूम थी।



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