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काली मां का सच्चा पुजारी







 गदाधर के बड़े भाई रामकुमार अपनी पत्नी के गुजरने के बाद कामार पुकुर गांव छोड़कर कोलकाता शहर में आ गए।वहां उन्होंने एक पाठशाला खोली और संस्कृत सिखाने लगे।पाठशाला में अध्यापन के बाद उनके पास जो थोड़ा बहुत समय बचता था ,उसमें भी लोग उन्हें पूजा पाठ करने के लिए अपने घर बुला लेते थे। पाठशाला में पढ़ने आनेवाले बच्चों की संख्या ज्यादा नहीं थी लेकिन धीरे धीरे उनका पूजा पाठ का काम बढ़ने लगा था।इसलिए मदद के लिए उन्होंने अपने छोटे भाई गदाधर को भी शहर में बुला लिया।16 बर्ष के गदाधर लोगों के घर जाकर पूजा पाठ करने के लिए तो  मान गए लेकिन उन्होंने पाठशाला में बच्चों को पढ़ाने से मना कर दिया।हालांकि रामकुमार ने उन्हें बहुत समझाया लेकिन वे नहीं माने।


इसी दौरान  मछुवारन जाती की एक संपन्न महिला रानी   रासमणि ने कोलकाता से लगभग चार मील दूर गंगा के पूर्वी तट पर दक्षिणेश्वर में  मा काली का एक भव्य मंदिर बनवाया।उस मंदिर में पुरोहित का कार्य करने के लिए एक ब्राह्मण कि आवश्यकता थी।लेकिन चूंकि रानी रासमणि  स्वयं  मछूबारन जाती की थी इसलिए उनके द्वारा बनवाए गए मंदिर में कोई भी ब्राह्मण पंडित मूर्ति स्थापना और पूजा करने के लिए तैयार नहीं हुआ।



रानी रासमणि को जल्द ही एहसास हो गया कि यदि किसी तरह किसी ब्राह्मण द्वारा मूर्ति स्थापना करके पूजा करबा भी दी जाए ,तब भी ब्राह्मण वर्ग के लोग इस मंदिर में नहीं आएंगे। 

बास्तब में किसी भी मंदिर के निर्माण के पीछे मुख्य उद्देश्य यही होता है कि लोग वहां भगवान का दर्शन करने आएं ताकि एकता में सभी का मंगल हो।लेकिन लोग धर्म कर्म के कार्यों में भी जाती को बीच में लाकर मंदिर के नाम पर झगड़े करते है। अगर किसी मंदिर की शुरुआत में ही ऐसा होता है तो इसे अमंगलकारी माना जाता है।इसलिए रामकुमार और रानि रास मनी के दामाद मथुरनाथ ने मिलकर तय किया कि यह मंदिर रानी अपने गुरु को दान कर दे।ऐसा करने पर ही लोग मंदिर में आने के लिए तैयार होंगे क्योंकि फिर वह मंदिर किसी मछुवार न जाती की रानी का नहीं होगा।धीरे धीरे लोग इस बात को स्वीकार कर लेंगे कि यह मंदिर एक गुरु का हे।चूंकि गुरु के लिए जाती का कोई महत्व नहीं होता और वे हर जाती के इंसान को ज्ञान देते है। रानी रासमणि के गुरु ने उस मंदिर को स्वीकार कर लिया।उन्हें अंदाजा था कि एक दिन इस मंदिर के माध्यम से विश्व कल्याण होगा।


किसी भी मंदिर की शुरुआत में लोगों को पता नहीं होता कि यह मंदिर किस प्रकार निमित्त बनने वाला है।गंगा नदी के किनारे बने इस मंदिर के निर्माण के पीछे असली उद्देश्य यही था कि यहां कुछ ऐसा हो ,जो संसार की काया पलट दे। आखिरकार यही हुआ भी,जब नरेंद्र नाम का एक लड़का इस मंदिर में आकर रामकृष्ण परमहंस का शिष्य बना,जिसने बाद में स्वामी विवेकानंद के रूप में पूरे संसार में भारत का नाम रोशन किया।


जैसे जब कंस के पापो से जमीन फट रही थी ,तब भगवान श्रीकृष्ण कारागृह में पैदा हुए थे।वे लोगों को कंस के अत्याचारों से मुक्ति देने आए थे ।क्योंकि जब किसी चीज की असल में आवश्यकता होती है,तभी ऐसा कुछ होता है।जब किसी शुभ कार्य के निर्माण में बाधा आती है तो उस बाधा के बावजूद उस चीज(कार्य) का निर्माण होने देना चाहिए।क्योंकि इससे जो सामने आएगा ,वह  परिणाम कारी होगा।मा काली के इस मंदिर से भी लोगों को विशेष परिणाम मिलनेबला था।


रामकृष्ण परमहंस के बड़े भाई रामकुमार ने उस मंदिर के पूजा पाठ की जिम्मेदारी ले ली।वह मंदिर काफी बड़ा था और उसके बाजू में राधा कृष्ण का मंदिर बना हुआ था।इतने बड़े मंदिर के कार्य के लिए रामकुमार को सहायता की आवश्यकता थी इसलिए वे गदाधर की मदद लेने लगे।


रामकुमार चाहते थे कि उनका छोटा भाई गदाधर भी अपने जीवन में स्थिर हो।उनका विचार था कि एक बार गदाधर कहीं कोई स्थायी काम करने लगे तो उसकी आजीविका कि व्यवस्था हो जाएगी ।रानी  रासमणि के दामाद  माथुर नाथ बिस्वास को गदाधर का रहन सहन ,उनकी बोली बगैरह बहुत पसंद आती थी।इसलिए उन्होंने रामकुमार से कहा कि हम गदाधर को मंदिर का पुजारी बनने के लिए तैयार करते हैं।जब रामकुमार ने गदाधर से इस बारे में पूछा तो गदाधर पहले इस कार्य के लिए तैयार नहीं हुए क्योंकि उन्हें सबसे ज्यादा तकलीफ मूर्ति के गहने सभालने में थी। वे उस मूर्ति के आभूषणों को स्पर्श तक नहीं करना चाहते थे। वे पहले से ही मया से जुड़ी सारी चीजों से दूर रहना चाहते थे। लेकिन रामकुमार ने इसका भी हाल ढूंढ़ निकाला ।उन्होंने अपने भाजें हृदय राम को बुलाया और काली मा कि मूर्ति के आभूषण संभालने की जिम्मेदारी उसे सौंप दी। उसके बाद गदाधर मंदिर में पूजा पाठ करने के लिए तैयार हो गए।इस तरह राम की मर्यादा और कृष्ण के भक्ति योग के संयोग से गदाधर यानी रामकृष्ण परमहंस की अभिव्यक्ति शुरू हो गई।

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